एक शिक्षक का करुणामयी पत्र

 

मेरे प्रिय विद्यार्थी,

letter

कैसे हो तुम? इन औपचारिक शब्दों के साथ तुम्हें पत्र लिखने का साहस कर रहा हूँ। वह भी इसलिए कि साल में एक बार मुझे सम्मानित करने का दुस्साहस

करते हुए तुम भी एक औपचारिकता निभा ही लेते हो। हम दोनों एक-दूसरे की पहचान है। हमारा एक-दूसरे के बिना कोई अस्तित्व ही नहीं है। मैं इस बात को अच्छी तरह से जानता हूँ, इसलिए मेरे पूरी कोशिश रहती है कि मैं अपने ज्ञान का एक-एक सुनहरा मोती तुम पर न्योछावर कर दूँ। जिसे स्वीकार कर तुम

जगमगा उठो। अपने इस कार्य में मैं पूरी ईमानदारी से जुटा हुआ हूँ। तुम्हें एक जिम्मेदार नागरिक बनाने का दायित्व मुझ पर है। बड़े होकर तुम डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, उद्योगपति या कुछ और भी बनो लेकिन समाज के एक सभ्य नागरिक बनो, इसी कोशिश में मैं तुम्हें ज्ञान के साथ-साथ अच्छे संस्कार भी देता हूँ। न केवल आज, बल्कि सदियों से संस्कारों का उपहार तुम्हें देता चला आ रहा हूँ। मगर आज इन संस्कारों की कोई कीमत नहीं रह गई है और इनके साथ-साथ मेरा मूल्य भी घटता जा रहा है। आज इस बात को महसूस कर रहा हूँ। तभी अपनी व्यथा इस पत्र के माध्यम से तुम तक पहुँचाने का साहस भी कर पा रहा हूँ। हो सकता है मेरी इस पीड़ा से भीगे शब्द तुम्हें कड़वे लगे पर सच्चाई तो कड़वी होती है ना। एक बार इस कड़वेपन को पढ़ने का साहस अवश्य करना और हो सके तो इस पर विचार भी करना।

मेरे द्वारा दिए गए ज्ञान को तो तुम अच्छी तरह से ग्रहण करते हो, क्योंकि ये तुम्हें आर्थिक रूप से संपन्न बनाने में सहायक होगा, लेकिन जहाँ मैं तुम्हें कुछ संस्कार देने का प्रयास करता हूँ, तुम मेरा मजाक उड़ाने लगते हो। अपनी सीधी-सरल भाषा में व्यंग्य घोलकर कहते हो ‘‘ये सभी बेकार की चीजें हैं। आपके समय में इनकी कींमत थी लेकिन अब नहीं है। जमाना बदल गया है।‘‘ ऐसा कहते हुए तुम्हारी हँसी अट्टहास में बदल जाती है और ये अट्टहास मुझे भीतर तक बेधता चला जाता है। तुम मेरा उतरा हुआ चेहरा तो देख लेते हो, लेकिन तरबतर हुई आँखों के आँसू नहीं देख पाते हो, क्योंकि मैंने उन्हें बहने का हक ही नहीं दिया। यदि ये बह निकले, तो तुम्हारे सामने मैं कमजोर पड़ जाऊँगा। फिर अगली बार मेरे संस्कार भाषण पर तुम हँसोगे नहीं, या तो कक्षा से बाहर निकल जाओगे या अपनी हठधर्मिता से मुझे कुछ और कहने से रोक लोगे। मुझे तुम्हारी भावनाओं को समझते हुए अपना संस्कार राग बंद करना होगा और केवल ज्ञान की वीणा बजानी होगी। तभी हमारे बीच तारतम्य स्थापित होगा। तभी तुम मुझे झेल सकोगे। ‘‘झेलना‘‘ कितना पीड़ादायक है ये शब्द!! आज इस शब्द के आवरण से लिपटा हुआ मैं अपनी पहचान तलाशने की कोशिश कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि धीरे-धीरे मेरी सही पहचान खत्म होती जा रही है और औपचारिकता हावी होती जा रही है। आज हर विद्यार्थी मुझे झेलता है। आधुनिक तकनीक के उपहार ने एक तरह से मुझे हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया है। इंटरनेट पर क्लिक की ध्वनि के साथ ज्ञान की बौछारें तुम पर ऐसी बरसती  है कि तुम उस ज्ञानवर्षा से पूरी तरह भीग जाते हो। इस ज्ञानवर्षा के बावजूद विद्यालय में मेरा वजूद तुम्हें खींच लाता है। तुम अपने विद्यार्थी होने का कर्तव्य निभाते हुए विद्यालय आते हो और विद्यार्थी जीवन के हर क्षणों को पूरी मस्ती के साथ जीते हो। बदलाव की हवा ही ऐसी चली है कि आज हर विद्यालय ने अपने विद्यार्थियों को सिर-आँखों पर बैठाया है। ‘‘चाइल्ड इज़ सुप्रीम‘‘ कहकर उसे शीर्ष स्थान दिया है। आज के बदलते समय में एक शिक्षक की तुलना में विद्यार्थी सर्वोपरि है। विद्यार्थी है तभी तो शिक्षक है, विद्यालय है। इसलिए विद्यार्थी का सम्मान करो। उसका कभी अपमान मत करो। इस नीति के अनुसार विद्यार्थी को मारना या डाँटना तो दूर की बात, उसके साथ ऊँची आवाज में बात करना या छूना भी कानूनी अपराध है। विद्यार्थी को पूरा अधिकार है कि वो किसी अप्रिय घटना के होने पर कानून का दरवाजा खटखटा सकता है। तुम्हारे अधिकारों का दायरा बढ़ने पर मैं खुश हूँ, किन्तु इन अधिकारों का फायदा उठाते हुए जब तुम छोटी-सी घटना पर भी मुझे दंड देते हुए कानूनी धारा में लाकर खड़ा कर देते हो, तो यह बहुत कष्टकर हो जाता है। मैं इस कष्ट को भी सहन करता हूँ, क्योंकि मुझे तो इसे सहन करना ही होगा। लेकिन मैं देख रहा हूँ कि इसका फायदा उठाते हुए तुम लगातार उच्छंृखल होते जा रहे हो। तुम संस्कारों की भाषा नहीं सुनना चाहते हो, अपने कान बंद कर लो। तुम नैतिक मूल्यों को नहीं समझना चाहते हो, अपने मस्तिष्क की खिड़कियाँ बंद कर लो। तुम आधुनिकता को स्वीकारते हुए, मेरा तिरस्कार करते हुए गलत राहों पर

बढ़ना चाहते हो, बढ़ते जाओ। कोई रोक-टोक नहीं, कोई व्यवधान नही। पर याद रखो- अनाचार और अनैतिकता के दलदल में जब धँसोगे, तब तुम्हारी चीखें

सुननेवाला कोई न होगा, क्योंकि तुम्हारे आसपास के सभी लोग चीख ही रहे होंगे। तब संस्कारों और नैतिक मूल्यों की मधुर ध्वनि तुम्हारे भीतर से उत्पन्न होगी। जो बहुत पहले मैंने तुम्हारे कानों में फूँकी होंगी। अपनी चीख रोककर उसे सुनने की कोशिश करना। शायद सफलता प्राप्ति के लिए, नए जीवन उद्देश्य के साथ स्वयं को फिर से तैयार कर पाओगे तुम। उस वक्त तुम मुझे याद करो न करो, शांत होकर अपने मन की बात सुनना ही मुझे याद करने के

बराबर होगा।

मुझे विश्वास है, कितने भी आधुनिक हो जाओ तुम, लेकिन मेरे ज्ञान और संस्कारों की मशाल तुम्हारा पथ आलोकित करने में कहीं न कहीं तो एक

छोटी-सी भूमिका अवश्य निभाएगी। इसी विश्वास के साथ ये पत्र लिखने का साहस कर पाया हूँ। ऐ मेरे प्यारे विद्यार्थी, केवल औपचारिकता के लिए मेरा

सम्मान करना बंद कर दो और अपनी आत्मा की आवाज सुनते हुए खुद से प्यार करना सीखो। जो स्वयं से प्रेम करता है, वह संसार की हर वस्तु को प्रेम

करता है और उसका सम्मान करता है।

तुम्हारा प्यारा शिक्षक

…….???……..

 

 

Written By:-

                                                                                               Mrs. Bharti Parimal
403,Bhawani                                                                                                              Parisar
Indrapuri BHEL
BHOPAL 462022                                                                                            

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हमारी सफलता. कॉम की पूरी टीम, श्रीमती भारती परिमल  जी का आभार व्यक्त करती है कि उन्होंने शिक्षक दिवस के विशेष अवसर पर एक शिक्षक की करुणामयी भावनाओं को इस हिंदी आर्टिकल के माध्यम से बताया और हमारी सफलता के सभी पाठकों के साथ इस आर्टिकल को साझा किया।

धन्यवाद !

Update:-  मित्रों, मैं आपसे माफ़ी चाहता हूँ क्योंकि मुझे इस बात की जानकारी नही थी कि इस लेख को डॉ. महेश परिमल जी ने नहीं बल्कि उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भारती परिमल जी ने लिखा है। डॉ परिमल ने हमें मेल के माध्यम से इस बात की जानकारी दी। इसलिए इस आर्टिकल का लेखन श्रीमती भारती परिमल जी ने की है इसलिए इसकी जानकारी सुधारी जा रही है।

धन्यवाद !

Post Update:- 07/09/2015

                                सभी पाठकों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभ-कामनाएं 

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